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कविता संग्रह

प्रश्न बराबरी का ???

रचना के ब्लोग पर मैंने उनकी रचना "तुम्हारे अस्तित्व की जननी हूँ मै" पढी । अच्छी भावपूर्ण कविता है । पढ़ के मैंने उनके ब्लोग पर टिप्पणी में कविता कि प्रशंसा करते हुए एक कविता में ही जवाब भी हाजिर किया जो नीचे लिखा है । किसी कारण से प्रशंसा टिप्पणी में दिखाई दी लेकिन जवाब नदारद तो मैंने सोचा शायद सही भी है । जब जवाब मेरी सोच की उपज है तो मेरे "ख्वाब और सोच" में ही क्यों न दिखे । :)

हाँ अफ़सोस रहेगा कि ये कार्यक्रम आगे नही बढ़ सका ...

प्रश्न बराबरी का ???

पूछना है मुझे की क्या मेरे अस्तित्व को जन्माने वाली ....
सोचा है अस्तित्व अकेले तेरा भी नही था जब तक नही तुने मुझे जन्मा ....

तू मां भी मेरी है ,
मेरी ही है बहिन तू,
मेरे जीवन की तू ही सन्गिनी है पर फ़िर भी मेरी है,
मेरी पुत्री है और मेरी खुशी भी ,
जब तू पूरी मेरी है,
हर रूप में मेरी है,
फ़िर क्युं सोचुं तुझ्से बराबरी की,
बस तु मेरी है हां मेरी है....

मेरे अस्तित्व की जननी तेरे अस्तित्व का कारण मै हुं ...
हम साथी हैं जन्म जन्मान्तर के ...
रचनाकर ने इस ब्रह्मान्ड के हम दोनो को बनाया है....
न तू मुझ्से बढ्कर है न मै तुझ्से बढ्कर हुं ....

-अंकित.

घोंसला !!!

घोंसला

तिनका तिनका जोड़ जोड़ कर मैं घर-बार सजाती हूँ ...
चल जाती है फिर पुरवाई मैं बेबस रह जाती हूँ ...

नही झिझकती पल भर को भी फिर श्रम में लग जाती हूँ ...
पुरवा अपना काम करे है मैं अपना कर पाती हूँ ....

जब तक ना हो सम्पूर्ण घोंसला, रहे अभाव सुरक्षा का, नींद कहाँ ले पाती हूँ ...
पुरवा निभाती है कर्म अपना मैं अपना धर्म निभाती हूँ ...

सीख लिया था पिछली बार जो उस से मजबूत बनाती हूँ ...
तिनका तिनका जोड़ जोड़ कर मैं घर-बार सजाती हूँ ...

-अंकित.

मेरी बिटिया - साल प्रथम !!!!

मेरी बिटिया - साल प्रथम

माँ को मम्मा मुझको पप्पा कह कर वो बुलाती है ....
सीख़ रही है हिंगलिश हमसे थोड़ा थोड़ा बतियाती है ...

भारत में दादा - दादी से मिलके अब वो आई है ....
दादा को बब्बा, चाचू को मनु और दादी को अम्मम्म बताती है ...

चार पैर के हर जीव को "भौ" बोल कर ऊँगली से दिखाती है ...
श्यामा पालतू हमारे घर की मेरी नन्ही गुडिया से घबराती है ...

लगी है चलने स्वयं आजकल यहाँ वहाँ चलती चली जाती है ...
डगमग डगमग चलते बढ़ते बड़ा उधम मचाती है ...

पहुँच जाती है रसोईघर में वो माँ का हाथ बंटाती है ...
उसकी पहुँच के सारे बर्तन राशन निकाल निकाल ले आती है ...

जब मैं घर आ जाता हूँ तो पकडो पकडो की रट लगाती है ...
पकङम पकड़ाई खेल खेल के फ़िर वो थोड़ा थक जाती है...

पहुँच जाती है सीधा अब वो कंप्युटर खुलवाती है ...
बब्बा से बात करनी है अब अपने अंदाज़ में बताती है ...

अपने आंसू पुन्छ्वाने के लिए दादा दादी को रिझाती है ...
उन्ही बब्बा को अम्मम्म को ये अपनी यादों से रुलाती है ...

भोली है प्यारी है सबकी आंखों का तारा बन जाती है...
अब वो अपने मुख से दिन भर की कथा भी सुनाती है ...

करके दिनभर भाग दौड़ वो रात तक थक जाती है ...
कभी मम्मा और कभी पप्पा के गले लग के मेरी बिटिया सो जाती है ...

  • अंकित।

किसलिए...

किसलिए

फिर दर्द को मेरी याद आयी क्यों कर,
ये डोर टूटी हुई फिर जुड़ने आयी किसलिए ???

फिर क़दमों में मेरे आवारगी आयी क्यों कर,
ये बीते हुए लम्हों में रवानगी आयी किसलिए ???

फिर दीवाने दिल में बेचारगी छाई क्यों कर,
ये कुल्मुलाहते अहसास और वोही दीवानगी छाई किसलिए ???

फिर खो जाने कि बेताब सी एक चाहत अपनाई क्यों कर,
ये ख्वाहिश कि दर्द-ए-दिल पायेगा राहत अपनाई किसलिए ???

-अंकित

लेकिन !!!

लेकिन

भूल जाना तुझे मुमकिन तो नहीं,
लेकिन नामुमकिन को हकीकत करना तेरे लिए नयी अदा भी तो नही!!!

हो बहुत दूर लेकिन इस दिल से जुदा तो नही,
लेकिन फिर मैं कोई खुदा भी तो नही!!

तुझ से रूठना मेरी आदत तो नही,
लेकिन इसके सिवा मेरे पास कोई ताक़त भी तो नही !!!

उन साथ गुजारे लम्हों कि पास मेरे कोई निशानी तो नही,
लेकिन तेरे साथ कि आस बेमानी तो नही !!!

मेरी दोस्ती पुकारती है पर तू आता ही नही,
लेकिन क्या करूं इस दिल का जो और कुछ माँगता ही नहीं !!

ऐ मेरे दोस्त तेरी याद से आंखें भर आई,
लेकिन आंख के पानी से यादें धुन्धलायीं तो नहीं !!!

-अंकित

चाय !!!

मेरा ममेरा भाई जो "प्रथम" नामक एक NGO में काम करता है, उसने कुछ दिन पहले अपने ऑफिस में ग्रामीण बालकों के लिए शुरू हुए एक कार्यक्रम के बारे में बताया। वे लोग बच्चों के लिए कविताओं और कथाओं का संग्रह इकट्ठा कर रहे हैं और कुछ सरल कविताओं का योगदान भी ढूँढ रहे हैं। मैंने भी अपनी तरफ से एक छोटा सा प्रयास किया है। नीचे प्रस्तुत है वही प्रयास....

चाय

घर हो, सिनेमाघर हो या हो चौपाल की कोई चर्चा चटक...
दफ्तर हो, हो स्टेशन या हो एक दुकान छोटी किनारे लम्बी सड़क...

अलग अलग कभी हल्की कभी काफी कड़क....
जहाँ मिल जाये लोग सटक जाते हैं गटक गटक...

नही पाकर इसे सुबह बहुत लोग जाते हैं भड़क...
चीखते हैं चिल्लाते सर पटक पटक...

ना पाना इसका जाता है उनको बहुत खटक...
सर का दर्द फिर रह जाता है अटक अटक...

हो मुम्बई, दिल्ली, आगरा, झाँसी या हो कटक...
चाय का है जादू ऐसा सर चढ़ के बोलता है मटक मटक...

  • अंकित।

मेरे आंगन !!!

मेरे आंगन

हर सुबह उसी की नरम गर्माहट भरवा देती है
ऊर्जा जिसके बल मैं रख पाता हूँ विपरीत समय भी सॉम्य रुप
मेरे आंगन में जो निकली है बनके एक सलोनी धूप ...

हर शाम उसी कि ही तो खुश्बू भुलवा देती है
तीव्र वेदना जो देते हैं दिनचर्या के शूल
मेरे आंगन में जो खिली है बनके सुन्दर एक प्यारा सा फूल...

हर रात वोही तो करवा देती है
रौशन घर की चारदीवारों के भीतर उमड़ता हुआ सारा अंधियारा
मेरे आंगन में जो उतरी है बनके एक प्यारा सा तारा...

-अंकित.

याद !!!

याद

बार बार आते हैं नज़र
तेरे साथ बीते पल और उनका असर

सुनाई देता था कविता सा सुखद सुन्दर
मैं आज जो दिखता हूँ बिखरा हुआ एक अक्षर

मौन मौन सा रहता है मन अक्सर
जब तड़पाती है तेरी याद हमसफ़र

पर पर मिलते जो मुझे, उड़ आता मैं उस शिखर
जिसकी ऊंचाइयों में समां गयी, तू हो गयी मेरी यादों सी अमर

-अंकित ।

मेरी बिटिया !!!

मेरी बिटिया !!!

कभी हंसती है कभी रो जाती है ...
देवगणों कि भाषा में किलकारी लगाती है ...

मन गदगद हो जाता है जब नित नए भाव दर्शाती है ...
देख अपने खिलौनों को इतराती है इठलाती है ...

नहीं कोई द्वेष उसके दिल में बस प्यार झिलमिलाती है ...
नहीं कोई छलावा उसके मन में बस विश्वास जताती है ...

अपनी माँ कि आहट सुनके आंखें गोल मटकाती है ...
छोटी सी अपनी बाहों को ऊपर उठा माँ को बहुत रिझाती है ...

मुझे पाके अपने आसपास खुश हो के वो मुस्कुराती है ...
गोदी में आने को फिर बहुत लालायित हो जाती है ...

अपनी जिव्हा को होंठों तले दबा नटखटपना दिखलाती है ...
ध्यान आकर्षित करने को जोरों से शोर मचाती है ...

जब बात नहीं बनती कोई झूठे आँसू टपकाती है ...
ऐसे वैसे कैसे कैसे अपनी बातें मनवाती है ...

नहीं बोलती अभी मुख से आंखों से कथा सुनाती है ...
बातें ऐसे करते करते मेरी बिटिया सो जाती है ...

-अंकित ।

जुदाई !!!

जुदाई

मेरी कहानी में था दर्द इतना,
सुन के पत्थर भी करहा से गए.

मेरी आंखो में था खौफ इतना,
देख के आंसू भी घबरा से गए.

इतना हुआ तनहा मैं तेरी जुदाई में,
सामने मेरे सन्नाटे भी गुनगुना से गए.

-अंकित