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कविता संग्रह

आदर्श !!!

आदर्श

मैं अपने ईमान को कभी बिकने नहीं देता
खुद को अपनी नज़रों मैं कभी गिरने नहीं देता

इसलिए खुदा मेरी गैरत को कभी झुकने नहीं देता
मेरे जन्मदाता के इस आदर्श को मैं मिटने नहीं देता

अंकित.

दुआ ...

दुआ

बहुत खुदगर्ज़ होके,
खुदा से ये मांग रखता हूँ ...
जीवनसाथी के जन्मदिन पर मैं,
उसकी खुशनुमा जिंदगी की गुहार करता हूँ ...

ऐ रब जिसकी हर ख़ुशी,
मुझसे हो कर शुरू, मुझ पर ख़तम हो जाती है ...
मैं उसको हर सुख दे पाऊँ, आज बस यही फ़रियाद मैं करता हूँ ...

अंकित.

निंदिया !!!

निंदिया

नैनों में निंदिया है
पर मुख पे है इनकार ...

स्वप्नलोक की अभिलाषी है
पर खेलने की है गुहार ...

सोने चली है मेरी नन्ही परी
पर दो कहानी का लगान बनेगा सरकार ...

-अंकित.

जीवन का मोड़ ...

जीवन का मोड़

ज़िन्दगी की राह बदलती लगती पलपल है
जीवन के इस मोड़ पर मिला एक घना जंगल है

ओह! मन के मन्दिर में सीमित जब संदल है
चाह की उड़ान लगती बहुत चंचल है

मन में मेरे होने लगी एक अजीब हलचल है
आज फिर मेरी विचारधारा में कलकल है

ज़िन्दगी की राह बदलती लगती पलपल है
जीवन के इस मोड़ पर मिला एक घना जंगल है

-अंकित

पूछ लो काजी से...

पूछ लो काजी से

क्यूँ कहते है खेल नहीं दिल का लगाना बोलो,
दिल तो दीवाना है, क्या इसका ठिकाना बोलो ....
भूलना होगा हर तरीका पुराना हमको,
ढूंढना होगा नया कोई बहाना हमको ....

दुश्मन के सौ वार एक जुदाई से भले होते हैं,
दिल पे निशाना होता है पर टुकड़े तो नहीं होते हैं ....
कोई जा के सुनाये हमारा अफसाना उनको,
बहुत मुश्किल है इस दिल का धडकाना अब तो .....

चले आते हैं बेबाक हमारे ख्यालों में वो,
बीता ज़माना देखे हमारी सूरत की हकीकत जिनको ....
क्या बना सबब आपके जाने का हमें याद नहीं,
हाँ मगर याद है वो आपका आना हमको ....

क्या गुस्ताख थी निगाहें हमको ये याद नहीं,
क्यूँ आपको लगती ज्यादा सजा की ये मियाद नहीं ....
हुआ गायब हमारा हर ख्वाब वो सुहाना ऐसे,
जहन्नुम बन गया हो हमारा ठिकाना जैसे ....

क्या जुबान ने खता की थी इसका तो अहसास नहीं,
लगा आपके जाने के बाद, के पास हमारे सांस नहीं ....
कल आती है आज आ जाए मौत के अब डरना कैसा,
घुट घुट के हम वैसे भी हर रोज मरा करते हैं ....

बुझ रहा है हमारी हस्ती का फ़साना यूँ तो,
सीखना फिर भी होगा साथ का निभाना हमको ....
के इन हाथ की लकीरों में बस वो ही वो दीखते हैं,
पूछ लो काजी से मुक़द्दर तो नहीं बिकते हैं ....

-अंकित

तुम बिन प्रिये !!!

तुम बिन प्रिये

यदा कदा ये कहता हूँ,
पर सदा सदा मैं देता हूँ.
प्रेम विवश हूँ, तुम बिन प्रिये,
मैं जीते जी मर जाऊँगा.

चलता फिरता रहता हूँ,
पर रुका रुका रह जाऊँगा.
प्रेम विवश हूँ, तुम बिन प्रिये,
मैं जीते जी मर जाऊँगा.

ख़ुशी ख़ुशी मैं हँसता हूँ,
पर घुट घुट के मिट जाऊँगा.
प्रेम विवश हूँ, तुम बिन प्रिये,
मैं जीते जी मर जाऊँगा.

पल पल सफल नहीं हूँ मैं,
पर पग पग बाधा ना सह पाऊँगा.
प्रेम विवश हूँ, तुम बिन प्रिये,
मैं जीते जी मर जाऊँगा.

दरिया दरिया तो तरता हूँ,
पर मैं दल दल में धंस जाऊँगा.
प्रेम विवश हूँ, तुम बिन प्रिये,
मैं जीते जी मर जाऊँगा.

शूर वीर सा लड़ता हूँ,
पर तनहा तनहा डर जाऊँगा.
प्रेम विवश हूँ, तुम बिन प्रिये,
मैं जीते जी मर जाऊँगा.

आज को कल कर देता हूँ,
पर कल काल में मैं फंस जाऊँगा.
प्रेम विवश हूँ, तुम बिन प्रिये,
मैं जीते जी मर जाऊँगा.

यदा कदा ये कहता हूँ,
पर सदा सदा मैं देता हूँ.
प्रेम विवश हूँ, तुम बिन प्रिये,
मैं जीते जी मर जाऊँगा.

अंकित.

मीत !!!

मीत

तेरे स्वर में बंधे जो मेरे शब्द तो वो गीत है,
तेरे मुख से मेरे कर्ण तक जो पहुंचे वो संगीत है.

मेरे गीत का हर अक्षर मेरी प्रीत का प्रतीक है,
मेरी जीत का तभी अवसर जब मेरे मीत तू नज़दीक है.

-अंकित.

कसूर

कसूर

शाम फुर्सत की मिल जाए, दुआ हर इबादत में ये माँगी
पायी फुरक़त, कोई हमको समझाए, है मेरा कसूर कहाँ ?

हरेक रात चांदनी आये, दुआ हर इबादत में ये माँगी
चाँद के साथ बादल भी आये, है मेरा कसूर कहाँ ?

खुशनुमा हर सवेरा हो पाए, दुआ हर इबादत में ये माँगी
खबरनामा खून से रंगा नज़र आये, है मेरा कसूर कहाँ ?

-अंकित