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गद्दार

गद्दार

जिंदगी का खेल खेलने में नहीं,
फर्क इसमें है की खिलाड़ी क्या सोचते हैं

मैं सिर्फ जीत सोचता हूँ और बाकी,
मेरी हार के पल में अपनी ख़ुशी खोजते हैं

मुझे हरा सके अब ऐसे दुश्मन कहाँ दिखते हैं,
हुई यदि हार तो कारण सदा द्रोही ही बनते हैं

खंज़र उनके हाथों सने खून में हर बार दिखते है,
जो बुला कर दोस्त पीछे पीठ पर वार करते हैं

किस्मत अच्छी है मेरी के मेरे दोस्त कम बनते हैं,
लेकिन जो बनते है वो कभी भी गद्दार नहीं निकलते हैं

-अंकित.

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