जीवन-पड़ाव
जीवन-पड़ाव¶
क्यूँ मन की वीणा बचपन की वो एक धुन बजाने लगी है,
उमड़ आयीं यादें बेहिसाब और गणित गडबडाने लगी है .
क्यूँ मेरी तन्हाई मेरे धीर को आजमाने लगी है,
नीर का अभाव है और आँख डबडबाने लगी है.
क्यूँ तीव्र वेदना भी अब सुहाने लगी है,
अमावस की रात है और दीप - ज्योति टिमटिमाने लगी है.
क्यूँ बिन पिए मेरी चाल डगमगाने लगी है,
आखरी जीवन-पड़ाव है और मंजिल बस दूर से झिलमिलाने लगी है.
-अंकित