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माज़रा

माज़रा

यूँ की माज़रा है क्या ये कोई समझाता नहीं है,
यूँ ही भूली हुई याद कोई वापस बुलाता नहीं है।

क्या कुछ बात फिर से हमारी यूँ हो सी रही है ,
यूँ ही बेमतलब बेवजह बहाने तो कोई बनाता नहीं है।

कैसे आपकी शांत शख्सियत फिर गुनगुनाने लगी है,
यूँ ही आपको पुरानी मेरी आदत कोई गुदगुदाने लगी है।

हमेशा रूठे रहे जो हमसे वो अब वापस आने लगे हैं,
यूँ तो यकीं होता नहीं पर शायद दुआ कोई रंग लाने लगी है।

यूँ की माज़रा है क्या ये कोई समझाता नहीं है,
यूँ ही भूली हुई याद कोई वापस बुलाता नहीं है।

-अंकित.

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