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खुशनुमा ज़िन्दगी

खुशनुमा ज़िन्दगी

बहुत खुशनुमा ज़िन्दगी हुआ करती थी,
कभी ग्यारह कभी बारह बजे नींद खुला करती थी

जब मेरी ज़िन्दगी में तुम आ गयीं,
मेरी रातों की नीद उड़ा गयीं

फिर भी बहुत खुशनुमा ज़िन्दगी हुआ करती थी,
के ख्वाब बिना नींद के आँखें देख लिया करती थीं

उस दिन जब हमारी शादी के लिए तेरी माँ हो गयी राजी,
तेरे बाप ने की खिट-पिट पर मेरे बाप ने मार ली बाज़ी

सर पे पहने सेहरा हो घोडी पर सवार आ गया घर तेरे,
सास ससुर ने रोते हुए किया कन्यादान पड़ गए फेरे

नयी ज़िन्दगी साथ गुजारने के हुए दृड़ जब इरादे,
पंडित ने संस्कृत में करवा दिए अनेक अज्ञात वादे

बहुत रोमांचक मोड़ पे ज़िन्दगी दिखा करती थी,
कभी सात कभी आठ बजे नींद खुला करती थी

बीते कुछ साल तो प्यारी हमारी बिटिया ज़िन्दगी में आ गयी,
इस बार मेरी रातों की नींद उसकी अंखियों में समां गयी

उसके नखरों और अदाओं में वक़्त गुज़र जाता,
कभी हंसती तो मैं हँसता वो रोती तो झुंझला जाता

अब उसकी जीवनी लिखने का ज़िम्मा मिल गया है,
कोई कुछ भी बोले काम कठिन ये भी बड़ा है

मेरे हर जवाब पे सौ नए सवाल खड़े करती है,
आजकल मेरे माथे की नस साफ़ दिखा करती है

उसको स्कूल पहुंचाने की हर सुबह रहती जल्दी है,
कभी पांच कभी छः बजे नींद खुला करती है

फिर भी खुशनुमा ज़िन्दगी बहुत लगती है...
फिर भी खुशनुमा ज़िन्दगी बहुत लगती है...

-अंकित

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