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चाय !!!

मेरा ममेरा भाई जो "प्रथम" नामक एक NGO में काम करता है, उसने कुछ दिन पहले अपने ऑफिस में ग्रामीण बालकों के लिए शुरू हुए एक कार्यक्रम के बारे में बताया। वे लोग बच्चों के लिए कविताओं और कथाओं का संग्रह इकट्ठा कर रहे हैं और कुछ सरल कविताओं का योगदान भी ढूँढ रहे हैं। मैंने भी अपनी तरफ से एक छोटा सा प्रयास किया है। नीचे प्रस्तुत है वही प्रयास....

चाय

घर हो, सिनेमाघर हो या हो चौपाल की कोई चर्चा चटक...
दफ्तर हो, हो स्टेशन या हो एक दुकान छोटी किनारे लम्बी सड़क...

अलग अलग कभी हल्की कभी काफी कड़क....
जहाँ मिल जाये लोग सटक जाते हैं गटक गटक...

नही पाकर इसे सुबह बहुत लोग जाते हैं भड़क...
चीखते हैं चिल्लाते सर पटक पटक...

ना पाना इसका जाता है उनको बहुत खटक...
सर का दर्द फिर रह जाता है अटक अटक...

हो मुम्बई, दिल्ली, आगरा, झाँसी या हो कटक...
चाय का है जादू ऐसा सर चढ़ के बोलता है मटक मटक...

  • अंकित।

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